राजमहल 17

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उद्यान में परिया
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Part 9 of the 18 part series

Updated 05/05/2024
Created 02/16/2024
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राजमहल 17

उद्यान में परिया

हवा में उड़ती एक और परी आ रही थी,

उसी समय कुछ परियाँ और आ गईं। उनके हाथों में कीमती कालीन थे। देखते-देखते उन्होंने वे कालीन बिछा दिए। फिर जाने क्या किया कि वह सारा मैदान रोशनी से जगमगा उठा। अब तो इन दोनों के प्राण मुँह को आ गए। उस रोशनी में कोई भी उन्हें देख सकता था। जगमगाहट में उन्हें दिखाई दिया कि एक ओर से दूध जैसे फव्वारे चलने लगे हैं। पेड़ों की हरियाली अब बड़ी ही मोहक लगने लगी। जब वे दोनों असमंजस में डूबे उस दृश्यावली को देख रहे थे!

वो चांदनी रात शानदार, और सुहावनी थीl न ज़्यादा गर्म न ज़्यादा सर्द, करीब एक घंटे तक राजकुमार वरुण और अली पेड़ पर छुपे बैठे रहे।

आसमान से कुछ परियाँ एक रत्न-जड़ित सिंहासन ले कर उतरीं और उन्होंने उस सिंहासन को एक बहुत ही कीमती कालीन पर रख दिया। सारी परियाँ मिल कर एक पंक्ति में खड़ी हो गईं। राजकुमार वरुण और वज़ीर के लड़के अली ने अपनी आँखें मलीं। कहीं वह सपना तो नहीं देख रहे थे!

वजीर का लड़का अली बार-बार अपने को धिक्कार रहा था कि उसने राजकुमार वरुण की बात क्यों मानी। पर अब क्या हो सकता था! आसमान में गड़गड़ाहट हुई। दोनों ने ऊपर को देखा तो एक उड़न-खटोला उड़ा आ रहा था।

'यह क्या,' राजकुमार वरुण फुसफुसाया। वज़ीर के लड़के अली ने अपने होठों पर उँगली रख कर चुपचाप बैठे रहने का संकेत किया।

उड़न-खटोला धीर-धीरे नीचे उतरा और उसमें से सजी-धजी एक परी बाहर आई। वह उन परियों की मुखिया थी। सारी परियों ने मिल कर उसका अभिवादन किया और बड़े आदर भाव से उसे सिंहासन पर आसीन कर दिया।

तालाब घनी झाड़ियों, पेड़ो और पौधों से घिरा हुआ लगभग एक एकड़ का छोटी थी जिसका पानी बहुत स्वत्छ था जिसमे चाँद अपनी चांदनी बिखेर रहा था। ये तालाब दूर से दिखाई भी नहीं देता था। वास्तव में ये परियों का गुप्त तालाब था जिसमे वह स्नान करने आती थी। तालाब से लगभग बीस या तीस वर्ग गज की दूरी पर, जिसमें पेड़ों के बीच में घिरी हुई हयी छुपी हुई एक जगह थी जहाँ परिया स्नान के दौरान अपने कपडे और पर रखती थी।

तालाब का किनारे पर बारीक रेत थी और तालाब के किनारे एक पेड़ों की झाडी की शृंखला थी जिसे पकड़ कर तालाब के गहराई से बाहर निकल सकते थे। पास ही बह रही एक नदी से आ रही नहर से जुडी ताजे पानी की एक पतली-सी जलधारा थी जो तालाब में गिरती थी l फिर तालाब से एक नहर निकलती थी, जो मैदान और खेतो की तरफ़ जाती थी।

एक घने पेड़ पर चढ़कर, छिपे हुए राजकुमार वरुण और अली अधीरता के रोमांच के साथ परीयों की प्रतीक्षा करने लगे। जहाँ राजकुमार वरुण और अली छिपे थे उन्हें वहाँ से तालाब का अच्छा नज़ारा मिल रहा था।

इसे देखकर राजकुमार वरुण फुसफुसाया मित्र ये तो बहुत बढ़िया जगह है, मस्ती करने के लिए और ये स्थान गुप्त रहे इसका भी पूरा ध्यान रखा गया है। यहाँ तक के तालाब के चारो और एक काँटों लगा लोहे का गुप्त बाड़ा (चारदीवारी) भी है जो की अब पेड़ो और झाड़ियों में पूरा छिप गया है। जिससे कोई अनचाहा मेहमान यहाँ नहीं आ सकताl ये किसने बनवाया है?

इस पर अली फुसफुसाया "राजकुमार! जहाँ तक मैं जानता हूँ ये जगह ज़मीन जायदाद तो हमारे राज्य में ही है और ये मैंने एक बार अब्बा हज़ूर से सुना था कि ये तालाब या झील का निर्माण आपके पूर्वजो ने ही करवाया था।"

राजकुमार वरुण बोला यहाँ पर अपनी रानियों के साथ गुप्त रूप से मस्ती की जा सकती है हम रानी मधुरिमा के साथ विवाह पश्चात अपना मधुमास का कुछ समय यहाँ अवश्य बिताएंगे।

इस तरह कुछ मिनट के इंतज़ार के बाद हमें पास आती हुई परीयों की टोली की हँसी की आवाज़ सुनाई दी तो अली ने राजकुमार वरुण को ख़ामोश रहने का इशारा किया। फिर चहचहाती हुई और ख़ुशी से उछलती हुई परीयों की आवाजे सुनाई दी।

राजकुमार वरुण बल पड़ा ओह मित्र ये परिया तो बहुत सुन्दर है। सभी परिया तरुण, सुंदर, कुंवारी अविवाहित, कमर तक वस्त्र से आच्छादित और हाथ में पानी से भरे हुए पात्र लिए हुए थी।

उद्यान की धरा उसके कोमल होठों के भीतर से झांकती, स्वच्छ श्वेत छोटी और सुघड़ दंत पंक्ति की झिलमिलाहटों से भर जाती है, उद्यान में परियों के हसने से, मन में, जीवन में और राजकुमार के मन में उत्साह भर गया। उत्साह और हदसि से परियो के दाडि़म के दानों की तरह एक पर एक चढ़ गये दांत और स्वस्थ कपोलों की आभा ऐसी थी, जिनकी कोई उपमा ही नहीं मिलती, अनुपमा की मादक

खिलखिलाहट की कामदेव के बाणों में भी गणना ही नहीं की गई है, जिससे मुनि जन तक अपना चिंतन छोड़ इस भ्रम में पड़ जाते है कि यह कोई नुपूर ध्वनि है अथवा किसी वाद्य यंत्र से निकला कोई संगीत का स्वर हैं, बड़े-बड़े संगीत के ग्यानी भी ये कल्पना ही नहीं कर पाते, विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा नारी स्वर इतना मधुर भी हो सकता है। मंद पीत आभा के रेशमी वस्त्रें से सुसज्जित, सुडौल अंगो से युक्त, मादक छवि वाली, मध्यम कद की यह रूप गर्विता जिसके आभूषणों में यत्र-तत्र नूपुर का बाहुल्य है--पैरों में पड़ी पायजेब या कमर में पड़ी करधनी अथवा लम्बी सघन केशराशि और उन्नत वक्षस्थल को मर्यादा में बाँधने का असफल प्रयास करते स्वर्ण तारों से रचित आभूषण मण्डल-----जिसके शरीर से आती मादकता की ध्वनि इन नूपुरों के संगीत को भी अपनी परिभाषा भूल गया हो और निहार रहा हो । मृगाक्षी अनुपमा के चेहरे को ख़ुद अपने-आप को वहाँ खिला देखकर आश्चर्यचकित हो कर उसे देख मुस्काने लगी।

उस परी का रूप ऐसा था कि वह एक ही बार में किसी रोगी का भी सम्पूर्ण काया-कल्प कर दे। शिथिल पड़ गए शरीर और इन्द्रियों को पुनः यौवनवान बना दें शरीर नीरोग हो जाए उसमें यौवन की छलछलाहट आये, उसमेंकुछ प्राप्त कर लेने की, किसी को अपना बना लेने की अदम्य लालसायें उफनने लगे । उफ़ अध्भुत सौंदर्य!

फिर परियों ने अपने पंख उतारे और फिर सभी वस्त्र उतारे दिए जिससे वरुण और अली को अंदाजा हो गया की अब परीयाँ मैदान से आगे उद्यान की छोटी झील में नहाने के लिए जा रही हैं। वह दोनों झील के बिलकुल पास पेड़ पर छिपे हुए गहरी चुप्पी के साथ, परी रानी और उनकी सहेलियों का तालाब पर स्नान के लिए आगमन का इंतज़ार करते रहे।

कुछ परिया तालाबों में पक्षियों के रूप में तैरने लगी फिर स्नान करने के बाद अश्वत्थ तथा न्यग्रोध वृक्षों पर झूले में झूलने लगी और कुछ परिया मधुर वाद्यों (कर्करी) की मीठी ध्वनि करने लगी और नाच गान तथा खेलकूद में निरंत होकर अपना मनोविनोद कर रही थी।

उन परियो की मुखिया जो की उनकी पारी रानी की बेटी थी उस पेड़ के बिलकुल पास आगयी जिस वृक्ष पर राजकुमार वरुण और अली छिपे हुए थे । उस परियों का रानी की बेटी का नाम अनुपमा था । जिसका सौन्दर्य शीतकाल में वृक्ष पर गिरे बर्फ की भांति शीतल और आंखों को सुखद स्पर्श देने वाला था, जो उसके गोल और भोले चेहरे से झलक रहा था।

पूषदेहा की टुकुर-टुकर देखती काली कजरारी आंखों में भोलापन ही दिखता है। अप्सराओं और सुंदरियों के चकाचौंधा भरे रूप रंग की जगह उसका सौन्दर्य एक ठहराव लिए हुए था और वही उसके निर्मल जल की भांति शांत चेहरे में दिखाई देता है। उसकी आँखों में प्रेम का प्रतिबिम्ब था जो उसी की तरह निश्छल और शांत, जिसमें कोई उत्तेजना नहीं थी और न कोई उद्वेलन था।

अप्सराओं के तीखे नयन नक्श की जगह अनुपमा के चेहरे पर बिखरी हुई थी मृदुता, उसकें अंग-अंग कोमल और सुडौलता लिये हुये थे, चाहे वह उसका अण्डाकार चेहरा हो या भरे-भरे स्वस्थ कपोल, आंखों की नरमी या व्यवहार में घुली शालीनता, अपनापन लिये होंठों से मुखरित होती गुनगुनाहट में जीवन का मधुर संगीत सुना रही थी।

ऐसी थी अनुपमा मृगाक्षी रूप गर्विता। गर्व अपने रूप का, अपने हृदय में भरे गुणों का और गर्व अपने नारीत्व का, ऐसा गर्व जिसमें कोई हठी नहीं, गर्व जिसमें कि वह बोध हो कि मैं नारी हूँ, लेकिन पुरूष को पूर्ण करने में समर्थ, अपने हृदय से प्रेम-प्रदान करने में समर्थ, गर्व जो कि उसमें समाया हो अपनी आन्तरिकताओं को लेकर और ऐसा ही मादक गर्व जो घंटियों की तरह खनकते हुये आकार घुल जाता हो कानों में।

अनुपमा अपने रूप का अक्स तालाब में देख अपने रूप के प्रकाश से अपने यौवन की आभा से हल्की-हल्की, दबी-दबी उठती हंसी की फुलझडि़यों से, वह अपने ही यौवन की मादकता पर मुग्ध हो जाती थी, ख़ुद ही उस में खोकर जब अपनी खिल-खिलाहट बिखेर देती है, अनुपमा भूल जाती है कि वह कहाँ है और कैसे है? उसके उस उद्यान में आने से उस घनी से घनी रात में भी चांदनी ऐसे खिल गयी थी जाते है, मानो सौ-सौ दीपक जल गए हो, ज्यों दीपावली अभी गई न हो, जाते-जाते फिर लौट आई हो, अनुपमा की प्रमुख सखी मृगाक्षी परी भी आकर अनुपमा के पास आ गयी और उसे झूला झुलाने लगी।

जारी रहेगी

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